बिश्नोईयों के शौर्य की एक अनसुनी सत्य-गाथा 1857 में मंगल पांडे ने जब मेरठ की बैरकपुर छावनी से आजादी की जंग का ऐलान किया तो पुरे देश में एक दम से क्रांति की लहर फैल गई और इस क्रांति को गदर का नाम दिया गया।इस गदर के क्रांतिकारीयों का दमन करने के लिए अंग्रेज़ो की सेना की एक टूकडी को नगीना(बिजनौर) भेजा गया।जिसको नगीना के बिश्नोईयो ने धूल चटा दी और जब इस घटना की जानकारी आला-ब्रिटिश अधिकारीयों को हुई तो उन्होंने सेना का एक और बडा दल नगीना भेजा जो आधुनिक हथियारों से लैस था।उस ब्रिटिश सेना ने पूरी तैयारी के साथ बिश्नोईयों को घेर कर उनपर हमला बोला जिसमें 52 बिश्नोई वीर सपूत शहीद हो गये।आजादी की लडाई में किसी भी कौम के इतने सारे लोगों की एक साथ शहीद होने की यह पहली घटना थी, जो आज भी बिश्नोई का सिर गौरव से ऊंचा करती हैं।इस घटना का विवरण बिजनौर के तत्कालीन D.M. सर सैय्यद अहमद ने अपने रोजनामचे(दैनिक लेखन) में लिखा है जो मूल रूप से उर्दू भाषा में लिखा हैं।सर सैय्यद अहमद वोहीं व्यक्ति हैं जिन्होंने अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। जहां ये नरसंहार हुआ था वह भूमि(जमीन) आज भी खाली पडी हैं जो बिश्नोई श्मशानघाट के नाम से सरकारी दस्तावेजों में उपलब्ध हैं।इस खाली स्थान पर शहीद स्मारक बनाने के लिए कई बार बिश्नोई महासभा के आला-अधिकारियों से वहां के स्थानीय लोगों द्वारा अनुरोध किया गया परन्तु कोई सकारात्मक नतीजा नहीं निकला। इस स्थान पर एक ईमली का वृक्ष था जो पिछले वर्ष गिर गया था।इस वृक्ष के नीचे अर्जुन शाह जी की समाधि हैं।इसी समाधि के स्थान पर बैठ कर ही नगीना आगमन के समय गुरु जांभोजी ने राहगीरो को अपने कमण्डल से जल पिलाया था।कहते हैं कि लोग पानी पी रहें थे पर कमंडल खाली नहीं हुआ।ऐसे चमत्कारी बाबा की खबर जब शहर पहुंची तो धन्ना जी नाम के एक सज्जन गुरु जी को लेकर आये और वर्तमान के इस प्राचीन मन्दिर में ठहराया जहां वो 6 माह तक रहें और बिश्नोई धर्म का प्रचार व प्रसार किया।आज भी गुरु जी के इस मन्दिर में उनके चरण-चिन्ह विद्यमान हैं।ऐसा कहां जाता हैं कि यहाँ आकर जो भी अपनी मन्नत मांगता हैं वह अवश्य पूर्ण होती हैं।